यह कहानी 1900 ईस्वी की है, जब भारत में अंग्रेजी राज था और परंपरागत चिकित्सा से परे मानसिक स्वास्थ्य का विचार अब भी समाज में अजनबी था। बिहार के एक छोटे से कस्बे “सीतानगर” में डॉ. रामानंद ने अपनी शिक्षा समाप्त कर भारत वापसी की। वह अपने परिवार में पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने इंग्लैंड जाकर मनोविज्ञान और चिकित्सा में उच्च शिक्षा हासिल की थी। अपनी शिक्षा से उन्हें गहरा विश्वास हो गया था कि भारत के लोग भी मानसिक विकारों से ग्रस्त होते हैं, परंतु समाज उन्हें या तो पागल मानकर नजरअंदाज कर देता था या फिर किसी दैवीय दोष का नतीजा मानता था।
मनोचिकित्सक डॉ. रामानंद का उद्देश्य
डॉ. रामानंद का उद्देश्य स्पष्ट था—वह मानसिक विकारों को एक गंभीर समस्या मानते थे और चाहते थे कि इसे आम बीमारियों की तरह ही समझा जाए। सीतानगर में उनका आगमन समाज के लिए एक अजूबा जैसा था। उनकी सोच थी कि मानसिक विकार केवल कुछ ही लोगों में नहीं, बल्कि सामान्य समाज में भी व्यापक रूप में फैले हैं। सीतानगर के लोग उनके प्रयासों को लेकर उत्सुक और कुछ लोग संशय में थे। आखिरकार, उन्होंने कस्बे में एक मानसिक स्वास्थ्य केंद्र खोलने का निर्णय लिया, जिसे “हरित भवन” नाम दिया गया।
पहले मरीज की पहचान
उनके केंद्र का उद्घाटन होते ही, सबसे पहले जिस व्यक्ति को भर्ती किया गया, वह था बुजुर्ग पंडित दीनानाथ। पंडितजी को पूरे कस्बे में पूजा-पाठ और भाग्य देखने के लिए जाना जाता था। वह दावा करते थे कि उनके पास दिव्य दृष्टि है और देवी-देवताओं से उनका संवाद होता है। डॉ. रामानंद ( मनोचिकित्सक ) ने इसे मानसिक विकार मानते हुए उन्हें हरित भवन में भर्ती कर लिया। लोग चकित थे कि कस्बे के सम्मानित पंडितजी को पागल करार दिया गया है।
धार्मिक और सामाजिक विवाद
डॉ. रामानंद का यह कदम लोगों में विवाद का कारण बन गया। लोगों को लगा कि अंग्रेजी शिक्षा ने डॉक्टर को उनके धर्म और परंपराओं के प्रति विद्रोही बना दिया है। ग्रामीणों का कहना था कि पंडितजी तो देवी का आशीर्वाद पाकर ही लोगों की मदद करते हैं। डॉक्टर ने इसे धार्मिक अंधविश्वास और मानसिक भ्रम करार दिया, जिसे सुधारने की आवश्यकता है।
धीरे-धीरे, उन्होंने कस्बे के अन्य लोगों में भी अलग-अलग मानसिक विकार ढूंढने शुरू कर दिए। हर उस व्यक्ति को हरित भवन भेजा जाने लगा जो डॉक्टर की दृष्टि में किसी प्रकार की “मानसिक असमान्यता” प्रदर्शित करता था। चाहे कोई व्यक्ति हर समय प्रसन्न रहता या उदास, उसका व्यवहार विचित्र हो या वह बात-बात पर गुस्सा हो जाता—डॉ. रामानंद के अनुसार, सब में कोई न कोई विकार था।
समाज में खलबली
सीतानगर के लोग अब डॉक्टर से घबराने लगे थे। कस्बे के व्यापारी गोवर्धन, जो हंसी-मजाक में माहिर थे और हर किसी के साथ हंसी-मजाक करते रहते थे, उन्हें भी डॉक्टर ने “खुशामदी मानसिकता” का रोगी करार दिया और हरित भवन में भेज दिया। यह एक संकेत था कि डॉक्टर के सिद्धांतों की चपेट में हर कोई आ सकता है। धीरे-धीरे, डॉक्टर ने यह नियम बना लिया कि जो भी उन्हें अनुचित तरीके से खुश या उदास दिखेगा, उसे हरित भवन में भेजा जाएगा।
हरित भवन में लोगों की भीड़
कुछ महीनों बाद, हरित भवन में कस्बे के दर्जनों लोग भर्ती हो गए। उनमें से कुछ व्यापारी थे, कुछ साधारण किसान, और कुछ विद्यार्थी। कस्बे के लोगों में यह खौफ फैल गया कि कहीं उन्हें भी पागल करार न दे दिया जाए। अब तक कस्बे के बड़े-बड़े लोग भी हरित भवन में भर्ती किए जा चुके थे। लोग अपनी भावनाओं को छुपाने लगे और सावधानीपूर्वक बात करने लगे ताकि उन्हें मानसिक रोगी घोषित न कर दिया जाए।
डॉ. रामानंद (मनोचिकित्सक) के सिद्धांतों का विरोध
जैसे-जैसे हरित भवन में भर्ती होने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी, डॉक्टर के सिद्धांतों पर समाज में गंभीर सवाल उठने लगे। कई लोगों ने सोचा कि शायद डॉक्टर ही मानसिक भ्रम में हैं और उनका यह नया प्रयोग कस्बे के लिए हानिकारक साबित हो रहा है। कस्बे के कुछ बुद्धिजीवियों और नेताओं ने एक बैठक बुलाई और यह तय किया कि डॉक्टर के खिलाफ विरोध करना ही एकमात्र उपाय है। उन्होंने डॉक्टर का परीक्षण करने का निर्णय लिया कि क्या वह स्वयं मानसिक रूप से स्वस्थ हैं या नहीं।
विद्रोह की शुरुआत
डॉ. रामानंद को अब कस्बे के लोगों का गुस्सा झेलना पड़ा। एक दिन जब डॉक्टर अपने केंद्र में आए, तो कस्बे के लोगों ने उन्हें रोक लिया और यह सिद्ध करने की मांग की कि वह खुद मानसिक रूप से स्वस्थ हैं। एक बुजुर्ग ग्रामीण, जो अपने तर्क और शांति के लिए प्रसिद्ध था, खड़ा हुआ और बोला, “डॉक्टर साहब, आपने हमारे पंडित, हमारे व्यापारी और यहां तक कि हमारे किसान को पागल करार दे दिया। अगर वे सभी पागल हैं, तो क्या आप हमें बता सकते हैं कि आप खुद पागल नहीं हैं?”
मनोचिकित्सक रामानंद को यह प्रश्न सुनकर गुस्सा आया, परंतु उन्होंने अपने गुस्से पर काबू रखा और तर्क दिया, “मेरा उद्देश्य समाज को मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करना है। परंतु यदि आप सभी लोग मुझे ही संदेह की दृष्टि से देखते हैं, तो मैं खुद का परीक्षण कराने के लिए तैयार हूं।”
डॉ. रामानंद का परीक्षण
कस्बे के बड़े-बुजुर्गों और प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने डॉक्टर का परीक्षण करना शुरू किया। उन्होंने डॉक्टर के व्यक्तित्व, उनके कार्यों और उनके निर्णयों पर ध्यान दिया। परीक्षण के दौरान उन्होंने देखा कि डॉक्टर अपने सिद्धांतों में इतने अंधविश्वासपूर्ण थे कि वह हर छोटी-बड़ी चीज को मानसिक विकार समझते थे।
डॉ. रामानंद – मनोचिकित्सक का अंत
तब, कस्बे के बुजुर्गों ने निर्णय लिया कि डॉक्टर को भी हरित भवन में भर्ती किया जाए। डॉक्टर ने पहले इसका विरोध किया, परंतु कस्बे के लोगों ने उन्हें मजबूर कर दिया। यह उनके लिए एक बड़ा धक्का था।
धीरे-धीरे, सीतानगर के लोग वापस अपने पुराने जीवन में लौट आए। उन्होंने एक-दूसरे को समझना शुरू किया और निर्णय लिया कि मानसिक स्वास्थ्य को समझना महत्वपूर्ण है, परंतु हर व्यक्ति की मानसिक स्थिति का आदर करना उससे भी महत्वपूर्ण है।
इस प्रकार, सीतानगर के लोग इस अनुभव से सीखे कि मानसिक स्वास्थ्य एक जटिल विषय है और इसके प्रति संवेदनशीलता और समझ होनी चाहिए।
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