क्या होता अगर स्कूल कभी नहीं होते?

सोचिए, एक सुबह उठते हैं, और तैयार होने का, बैग पैक करने का, और सुबह की घबराहट में स्कूल भागने का कोई झंझट नहीं। बस उठिए, खिड़की से बाहर देखिए, और सोचिए कि आज दिनभर क्या करना है। हां, दोस्तों, सोचिए एक दुनिया जहां स्कूल नाम की चीज़ ही नहीं होती। और नहीं, ये कोई छुट्टी की बात नहीं है – ये एक असल दुनिया है, जिसमें स्कूल का कांसेप्ट ही नहीं है!

अब ज़रा सोचिए, ऐसी दुनिया कैसी होती? पढ़ाई कैसे होती? दोस्त कैसे बनते? और सबसे बड़ी बात – मम्मी-पापा का रिएक्शन क्या होता?

बचपन के असली मज़े

स्कूल न होने का पहला असर क्या होता? बचपन सच्चे में “बचपन” होता। बच्चे दिनभर खेलने-कूदने में, दुनिया को अपनी तरह से समझने में वक्त बिताते। मम्मी-पापा के “होमवर्क करो” वाले डायलॉग्स की जगह अब “बस थोड़ा आराम करो, दिनभर खेलते रहते हो!” जैसी बातें सुनाई देतीं।

बच्चों के पास खाली वक्त भरपूर होता। मतलब कि दुनिया की सबसे अजीब चीज़ों के बारे में सवाल पूछने का पूरा मौका। “आसमान नीला क्यों है?”, “बिल्लियां म्याऊं क्यों करती हैं?” – ऐसे सवाल जो क्लासरूम में कभी नहीं पूछे जाते। और जवाब? जवाब मिलते नहीं, बल्कि ढूंढे जाते, हर दिन नए अनुभवों से।

दोस्ती का नया मतलब

अब जब क्लास नहीं है, एक बेंच पर चुपचाप बैठकर किसी अजनबी के बगल में बैठने की मजबूरी नहीं है। दोस्ती किसी बुक के ऊपर झगड़े से नहीं, बल्कि खेल के मैदान में बनती। दोस्त बनाने के नए तरीके होते – जैसे कोई बच्चा आपको पेड़ पर चढ़ना सिखाए, या नदी के किनारे पत्थर फेंकने की बेस्ट ट्रिक बताए।

सोशल स्किल्स की ऐसी ट्रेनिंग मिलती, जो बिना होमवर्क के मिलती है। और, ज़रा सोचिए, दोस्तों के साथ बिताए वो लंबा वक्त जो किसी बोरिंग क्लास में घड़ी की ओर देखते हुए नहीं, बल्कि सच्चे में दुनिया को एक्सप्लोर करते हुए बीतता।

मम्मी-पापा की टेंशन – क्या ये कुछ ज्यादा ही फ्री हो रहे हैं?

स्कूल न होने से बच्चे घर पर ज्यादा वक्त बिताते। और माता-पिता के लिए ये शायद सबसे बड़ी चैलेंज बनता। वो दिनभर ये सोचते कि बच्चे पढ़ाई छोड़कर खेल में ही उलझ गए तो क्या होगा? “इन्हें बिठा के सिखाऊं या खेलने दूं?” जैसी उधेड़बुन तो रोज़ चलती।

शायद कुछ पैरंट्स बच्चे को अलग-अलग चीजें सिखाने में लग जाते – कोई म्यूजिक क्लास, कोई पेंटिंग क्लास, तो कोई साइंस प्रोजेक्ट। घर ही वो जगह बन जाती जहां अलग-अलग टैलेंट उभरते। मम्मी-पापा भी बच्चों के साथ नए अनुभवों में शामिल होते, और साथ में सीखने की जर्नी में पार्टनर बन जाते।

एजुकेशन: नया तरीका, नई सोच

अब सवाल ये है कि पढ़ाई होगी कैसे? क्योंकि चाहे स्कूल हों या न हों, पढ़ाई तो ज़रूरी है, सही? लेकिन इस दुनिया में शिक्षा का मतलब बदल जाता। बच्चे किताबों से नहीं, बल्कि अनुभवों से सीखते। हो सकता है खेतों में जाकर सीधे फसलों के बारे में जानें, बाजार में जाकर जोड़-घटाना सीखें, या पहाड़ों में ट्रैकिंग करके भौगोलिक ज्ञान हासिल करें।

शायद पड़ोस में कोई बड़ा भाई या बहन हो जो कहानियों में पढ़ाई घुमा-फिराकर सिखा दे। या फिर कोई गली का अंकल हो जो गाड़ियों का मैकेनिक हो और बच्चों को मशीनों का असली ज्ञान दे दे। टेक्स्टबुक्स के बजाय असली दुनिया उनकी टीचर होती।

क्या हम आज के बच्चे होते?

सोचिए, जो लाइफस्किल्स हम आज बड़ी उम्र में सीखते हैं – जैसे कि पैसे का सही इस्तेमाल, वक्त का महत्व, या लोगों के साथ मिलजुल कर काम करना – ये सब स्कूल न होने की दुनिया में बच्चे बचपन में ही सीख जाते। स्कूल में सिर्फ एक रेस जीतने की कोशिश नहीं होती, बल्कि असली दुनिया में खुद को तैयार करने का मौका होता।

शायद लाइफ में बच्चों को पढ़ाई की बजाय खुद का पैशन ढूंढने का पूरा मौका मिलता। वो वही बनते जो सच में बनना चाहते हैं, बिना किसी ग्रेड्स और मार्कशीट की टेंशन के। पेंटर, म्यूज़िशियन, साइन्टिस्ट या फिर लेखक – हर कोई अपने अंदर के टैलेंट को बिना किसी दबाव के एक्सप्लोर कर पाता।

क्या स्कूल की जरूरत थी?

अगर हम सोचें कि स्कूल का उद्देश्य क्या है, तो ये बस नॉलेज देने से ज्यादा लाइफ स्किल्स सिखाना भी है। और वो भी एक खास तरीके से। लेकिन अगर ये स्किल्स हम असली जिंदगी के अनुभवों से हासिल करें? शायद ये तरीका उतना भी बुरा न हो।

लेकिन साथ ही ये दुनिया एक ऐसे भविष्य की भी गारंटी नहीं दे सकती, जहां हर कोई अपने लक्ष्यों को पा सके। हर किसी के पास सीखने के वही साधन नहीं होंगे, और कहीं न कहीं वो संतुलन गड़बड़ा सकता है।

आखिर में, क्या स्कूल न होने की सोच हमें आज का स्कूल सिस्टम बदलने की ओर इशारा करती है?

तो, क्या स्कूल का न होना हमें ज्यादा रचनात्मक और स्वतंत्र बनाता या फिर एक अदृश्य फ्रेमवर्क से दूर कर देता? क्या ये हमें दुनिया को अपने तरीके से एक्सप्लोर करने का मौका देता या हमें दिशाहीन छोड़ देता?

शायद इसका जवाब दोनों में छुपा है। लेकिन एक बात तो तय है – स्कूल की क्लासरूम दीवारों से बाहर भी एक बड़ी दुनिया है, जो सीखने के लिए कभी रुकेगी नहीं।


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